"हमें ऊँचे नहीं उठना हमें नीचे नहीं गिरना, सभी के साथ मिलकर हम यहाँ कुछ कर गुजर जायें। बहुत पाने की चाहत में बहुत कुछ खो दिया हमने, उड़ाने व्यर्थ हैं वो जो जमीं को ठेस पहुचायें।। "
भारतीय प्राचीन सभ्यता के प्राम्भिक काल में मानवाधिकारों को अत्यन्त महत्व दिया गया है । प्राचीन ग्रन्थों में दोषी का परामर्श लेने का अधिकार और दोषी को निर्दोष मानना अच्छी तरह मान्य होना पाया गया है इसलिए प्राचीन हिन्दू विधिक पध्दति और विश्व व्यापक परिवार "वसुधैव कुटुम्बकम " की विसरत्त धारणा व्यक्तियों के मानवाधिकारों के बारे में मान्यता मिली । सारे विश्व की बन्धुता को संस्कृत के निम्नलिखित श्लोक में उपयुक्त ढंग से मूर्त रूप दिया गया है- " न त्व्ह कामये राज्य न स्वर्ग न पुनर्भवम कामये दुःख तप्ताना,प्राणिनाड आतनाशम'' मै न तो राज्य न ही स्वर्ग के आनन्द न ही निजी मोक्ष की खोज में हूँ बल्कि मानवता को इसके विविध दुःखो से मुकित दिलाना ही मानव जा का मुख्य उददेश्य मानता हूँ । भारत की स्वतत्रता के ६३ वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी आज भारतीय नागरिको की मानवाधिकारों के विषय में वास्तविक स्थिति क्या है यह जानना आवश्यक है। छः दशकों के पश्चात् भारत देश ने अपने देशवासियो को कितनी सीमा तक मानवाधिकार प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है इसका मूल्यांकन करना बहुत महत्वपूर्ण है चूकि हमारे संघ का लक्ष्य है कि-भारत माता के सपूतो को भारत माता का प्यार मिले वंचित ,शोषित, पीड़ित है जो मानवाधिकार मिले १० दिसम्बर १९४८ को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा मानवाधिकारों की ऐतिहासिक सार्वभौमिक घोषणा की गई जिसे सामान्यतः मानवता का महाधिकार पत्र''माना जाता है । भारत के संविधान निर्माताओं ने इस अंतर्राष्ट्रीय सार्वभौम .........